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मुंशी प्रेमचन्द जब लेखन-जगत में आये तो हिन्दी उपन्यासों का नया युग प्रारम्भ हुआ । समालोचकों ने इस युग को हिन्दी उपन्यास-जगत का ‘प्रेमचन्द युग' कहा। प्रेमचन्द ने उपन्यास विधा को नितान्त कल्पना की दुनिया से बाहर निकालकर, यथार्थ की दुनिया की ओर मोड़ा। उन्होंने किसानों, मज़दूरों, स्त्रियों, बच्चों, शोषितों, पीड़ितों, दलितों तथा समाज के अन्य उपेक्षित वर्ग के लोगों से सम्बन्धित दैनिक जीवन की अनेक समस्याओं का अपने उपन्यासों में चित्रण किया। नरेश मेहता ने ठीक कहा था कि “प्रेमचन्द का सबसे बड़ा अवदान हिन्दी कथा-साहित्य को मध्यकालीन मानसिकता, ऐयारी तथा क़िस्सागोई के मायाजाल से मुक्त करवाना है।" उनके इस अवदान का यह प्रतिफल है कि कथा-साहित्य की विधाएँ (उपन्यास एवं कहानी) यथार्थ-बोध की सर्जनात्मक विधाएँ बन सकीं और समसामयिक जीवन की समस्याओं को रेखांकित करने की शक्ति प्राप्त कर पायीं । प्रेमचन्द जितने प्रगतिशील थे उतने ही मानवीय भावनाओं व संवेदनाओं के संवाहक भी थे। वे आम मानव के सुख-दुःख को अपने साहित्य में ऐसे पिरोते थे. जैसे शरीर में प्राण होता है। प्रेमचन्द का उपन्यास वरदान दो प्रेमियों की दुःखान्त कथा है । ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले, जिन्होंने तरुणाई में भावी जीवन की सरल और कोमल कल्पनाएँ सँजोयीं, जिनके सुन्दर घर के निर्माण के अपने सपने थे और भावी जीवन के निर्धारण के लिए अपनी विचारधारा थी; किन्तु उनकी कल्पनाओं का महल शीघ्र ढह गया। विश्व के महान कथा-शिल्पी प्रेमचन्द के इस उपन्यास में सुदामा ‘अष्टभुजा देवी’ से एक ऐसे सपूत का वरदान माँगती है, जो जाति की भलाई में संलग्न हो । इसी ताने-बाने पर प्रेमचन्द की सशक्त क़लम से बुना कथानक जीवन की स्थितियों की बारीकी से पड़ताल करता है। सुदामा का पुत्र प्रताप एक ऐसा पात्र है जो दीन-दुःखियों, रोगियों, दलितों की निःस्वार्थ सहायता करता है ।विरजन और प्रताप की प्रेम-कथा के साथ ही विरजन तथा कमलाचरण के बेमेल विवाह का मार्मिक प्रसंग पाठकों को भावुक कर देता है इसी तरह एक माधवी है, जो प्रताप के प्रति भाव से भर उठती है, लेकिन अन्त में वह संन्यासी हो जाती है और मोहपाश में बाँधने की जगह स्वयं योगिनी बनना पसन्द करती है।- पुस्तक की भूमिका से
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