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गहरी नींद में आने के बाद भी वह महिला गाँधी के सामने से नहीं हटी। उसकी आवाज़ अभी भी कानों में गूँज रही थी-महात्मा जी मैंने तो आप पर विश्वास किया था कि आप देश का विभाजन नहीं होने देंगे। -क्या मैंने विभाजन रोकने की कोशिश नहीं की, गाँधी छटपटा रहे थे। - महात्मा जी मैंने तो हमेशा यही सुना था आप जो चाहते हैं, वही होता है, आप अगर चाहते विभाजन न हो, तो कभी नहीं होता। -यह सच नहीं है, बहन । मैंने चाहा था भगतसिंह की फाँसी रुक जाये... कहाँ रुकी? -लोग कहते हैं आपने भगतसिंह की फाँसी रोकनी ही नहीं चाही थी, आप चाहते तो फाँसी भी रुक जाती। -मैं एक साधारण इन्सान हूँ..., ईश्वर नहीं कि मेरी इच्छा से ही सारे कार्य होंगे। मेरी इच्छा से एक पत्ता तक नहीं हिल सकता। में तो भारतीयों का एक सेवक हूँ, सच्चा सेवक। उनकी सेवा करना ही मैंने अपना कर्तव्य माना है... शहीदे आजम भगतसिंह को बचाने के लिए मैंने कितनी कोशिशें कीं, तुम नहीं जानतीं। -महात्मा जी, मैं ही नहीं, सभी लोगों को यह विश्वास था, आप विभाजन नहीं होने देंगे। हम सबों का विश्वास टूटा है... कहते-कहते उस स्त्री की वेशभूषा बदलने लगी, उसके शरीर पर राजसी वस्त्र आ गये, वह हरिद्वार नहीं हस्तिनापर में खड़ी थी। उसके माथे पर सोने का मुकुट था-उसके सामने श्रीकृष्ण खड़े थे-वह स्त्री क्रोध में काँप रही थी-श्रीकृष्ण तुम चाहते तो महाभारत टल जाता, तुम चाहते तो मेरे सौ पुत्रों का वध नहीं होता। आज मैं पुत्रविहीना नहीं होती, तुम चाहते तो... गान्धारी फूट-फूटकर रो रही थी। -बुआ जी, मैंने महाभारत टालने की कितनी कोशिश की, हस्तिनापुर उसका गवाह है। मेरे शान्तिदूत बनकर आने की.., बुआ जी महाभारत मेरे चाहने से नहीं रुक सकता था, दुर्योधन की अति महत्त्वाकांक्षा के त्याग पर रुक सकता था। सामने न अब गान्धारी थी और न श्रीकृष्ण। गाँधी सपने में ही बुदबुदा रहे थे-बहन, जब दुर्योधन की अति महत्त्वाकांक्षा के कारण श्रीकृष्ण के चाहने पर भी महाभारत नहीं रुक पाया तो मैं उनके सामने एक तुच्छ प्राणी हूँ। भला जिन्ना की महत्त्वाकांक्षा के सामने मेरी क्या बिसात...। गाँधी की नींद खुल गयी, सामने न रावलपिण्डी की स्त्री थी और न गान्धारी। बस श्रीकृष्ण थे जिनकी व्यापकता को महसूस कर उनके चरणों में सब कुछ अर्पित कर रहे थे।
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